दो लफ्ज़
जितने अपने थे सब पराए थे
हम हवा को गले लगाए थे
जितनी क़समें थी सब थीं शर्मिंदा
जितने वादे थे सर झुकाए थे
जितने आँसू थे सब थे बेगाने
जितने मेहमां थे बिन बुलाए थे
सब क़िताबें पढी पढ़ाई थीं
सारे क़िस्से सुने सुनाए थे
एक बंजर ज़मीं के सीने में
मैंने कुछ आसमां उगाए थे
वरना औक़ात क्या थी सायों की
धूप ने हौसले बढ़ाए थे
सिर्फ़ दो घूंट प्यास की ख़ातिर
उम्र भर धूप में नहाए थे
हाशिए पर खड़े हुए हैं हम
हम ने ख़ुद हाशिए बनाए थे
मैं अकेला उदास बैठा था
शामो ने आहिल के दर्द बढ़ाए थे
है ग़लत उस को बेवफ़ा कहना
हम कहां के धुले धुलाए थे
आज कांटों भरा मुक़द्दर है
हम ने गुल भी बहुत खिलाए थे ||
Varsha_Upadhyay
24-May-2023 08:01 PM
बहुत खूब
Reply
Abhinav ji
24-May-2023 09:22 AM
Very nice 👍
Reply
Swati chourasia
24-May-2023 09:19 AM
बहुत खूब
Reply